राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं

राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं

“कालीबंगा सभ्यता

प्राचीन दृषद्वती और सरस्वती नदी घाटी (वर्तमान में घग्घर नदी का क्षेत्र) क्षेत्र में हड़प्पा सभ्यता से भी प्राचीन कालीबंगा की सभ्यता विकसित हुई। राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में स्थित यह सभ्यता आज से 6 हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन मानी जाती है। इस स्थल का कालीबंगा नाम यहाँ से खुदाई के दौरान प्राप्त काली चूड़ियों के कारण पड़ा है, क्योंकि पंजाबी भाषा में बंगा का अर्थ होता है चूड़ी। सर्वप्रथम 1952 ई. में अमलानन्द घोष ने इसकी खोज की और तत्पश्चात् 1961-62 ई. में बी.बी. लाल, बी.के. थापर द्वारा यहाँ उत्खनन कार्य करवाया गया। उत्खनन में इस सभ्यता के पाँच स्तर सामने आये हैं, प्रथम दो स्तर तो हड़प्पा सभ्यता से भी प्राचीन है, वहीं तीसरे, चौथे व पाँचवे स्तर की सामग्री हड़प्पा सभ्यता की सामग्री के समान और समकालीन है। इस आधार पर कालीबंगा की सभ्यता को दो भागों में बांटा गया है – (1) प्राक् हड़प्पा सभ्यता (2) हड़प्पा सभ्यता ।

कालीबंगा सुव्यवस्थित रूप से बसा हुआ नगर था। मकान बनाने में मिट्टी की ईंटों को धूप में पकाकर प्रयुक्त किया जाता था। उत्खनन से प्राप्त मिट्टी के बर्तन एवं उनके अवशेष पतले और हल्के हैं तथा उनमें सुंदरता व सुडौलता का अभाव है। बर्तनों का रंग लाल है, जिन पर काली एवं सफेद रंग की रेखाएँ खींची गई हैं। यहाँ से जुते हुए खेत के साक्ष्य मिलते हैं, ऐसा अनुमान है कि लोग एक ही खेत में दो फसलें उगाते थे। कालीबंगा से मिले कब्रिस्तान से यहाँ के निवासियों की शवाधान पद्धतियों की जानकारी मिलती है, साथ ही एक बच्चे के कंकाल की खोपड़ी में छः छिद्र मिले हैं, जिसे मस्तिष्क शोध बीमारी के इलाज का प्रमाण माना जाता है। यहाँ से प्राप्त खिलौना बैलगाड़ी, हवनकुण्ड, लकड़ी की नाली व बेलनाकार मुहर का हड़प्पा सभ्यता में अपना विशिष्ट स्थान है ।

आहड़ सभ्यता

उदयपुर शहर के पास बहने वाली आहड़ नदी (आयड़ नदी) के तट पर बसे आहड़ के उत्खनन के फलस्वरूप चार हजार वर्ष पुरानी पाषाण धातु युगीन सभ्यता के अवशेष सामने आए। यह सभ्यता एक टीले के नीचे दबी हुई प्राप्त हुई थी जिसे धूलकोट (धूल यानि मिट्टी का टीला) कहते हैं। सर्वप्रथम 1953 में यहाँ अक्षयकीर्ति व्यास एवं उसके बाद रतन चन्द्र अग्रवाल एवं एच.डी. साँकलियां के निर्देशन में उत्खनन कार्य करवाया गया।

इस सभ्यता के लोग मकान बनाने में धूप में सुखाई गई ईटों एवं पत्थरों का प्रयोग करते थे। आहड़ के लोग अपने मृतकों को गहनों व आभूषणों के साथ दफनाते थे, जो इनके मृत्यु के बाद भी जीवन की अवधारणा का समर्थक होने का प्रमाण है। उत्खनन में मिट्टी के बर्तन सर्वाधिक मिले हैं, जो आहड़ को लाल-काले मिट्टी के बर्तन वाली संस्कृति का प्रमुख केन्द्र सिद्ध करते हैं। आहड़ का दूसरा नाम ताम्रवती नगरी भी मिलता है जो यहाँ ताँबे के औजारों एवं उपकरणों के अत्यधिक प्रयोग के कारण रखा गया होगा। उत्खनन से प्राप्त ठप्पों से यहाँ रंगाई-छपाई व्यवसाय के उन्नत होने का अनुमान भी लगाया जाता है।

गिलूण्ड सभ्यता

राजसमन्द जिले में स्थित गिलूण्ड कस्बे में बनास नदी के तट पर दो टीलों के उत्खनन के फलस्वरूप आहड़ संस्कृति से जुड़ी यह सभ्यता प्रकाश में आई, जिसे बनास संस्कृति के नाम से भी पुकारा जाता है। 1957-58 ई. में बी.बी. लाल के निर्देशन में यहाँ उत्खनन किया गया। तत्पश्चात् 1998 से 2003 ई. के मध्य पूना के डॉ. वी.एस. शिन्दे एवं पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय (अमेरिका) के प्रो. ग्रेगरी पोशल के निर्देशन में यहाँ उत्खनन किया गया। उत्खनन से ताम्रयुगीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं, जिसका समय 1900-1700 ई.पू. निर्धारित किया गया है।

गिलूण्ड से पाँच प्रकार के मिट्टी के बर्तन मिले हैं- सादे, काले, पालिशदार, भूरे, लाल और काले चित्रित मृदभांड । उत्खनन में मिट्टी के खिलौने, पत्थर की गोलियाँ एवं हाथी दाँत की चूडियों के अवशेष मिले हैं। आहड़ में पक्की ईटों (आग में पकाई हुई ईंटे) का उपयोग नहीं हुआ है, जबकि गिलूण्ड में इनका प्रचुर उपयोग होता था ।

बागोर सभ्यता,

भीलवाड़ा जिले में स्थित बागोर में कोठारी नदी तट पर डॉ. वी. एन. मिश्र के निर्देशन में 1967 से 1970 ई. तक उत्खनन कार्य किया गया। उत्खनन के दौरान यहाँ प्रागैतिहासिक काल की सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो चार से पाँच हजार ईसा पूर्व के माने जाते हैं। यहाँ से बड़ी संख्या में लघु पाषाण उपकरण मिले हैं, जो इस सभ्यता के निवासियों के आखेटक होने को प्रमाणित करते हैं।

बागोर से तांबे के उपकरण प्राप्त हुए हैं, जिनमें छेद वाली सुई सबसे महत्वपूर्ण है। यहाँ से कृषि व पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। बागोर मध्य पाषाण कालीन सभ्यता का स्थल और लघु पाषाण उपकरण का प्रमुख केन्द्र था ।

गणेश्वर सभ्यता

गणेश्वर (नीम का थाना, सीकर) कांतली नदी के उद्गम पर स्थित ताम्रयुगीन संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थल है। रतनचन्द्र अग्रवाल के निर्देशन में हुए उत्खनन से यहाँ 2800 ईसा पूर्व की सभ्यता के अवशेष मिले हैं। गणेश्वर से अत्यधिक मात्रा में तांबे के आयुध व उपकरण मिले हैं जो इसे ताम्रयुगीन सभ्यताओं में प्राचीनतम सिद्ध करती हैं। यहाँ से प्राप्त तांबे के उपकरणों व पात्रों में 99 प्रतिशत तांबा है, जो इस क्षेत्र में तांबे की प्रचुर प्राप्ति का प्रमाण है। यहाँ से जो मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए है, उन्हें कृपषवर्णी मृदपात्र कहते है, यह बर्तन काले व नीले रंग से सजाये हुऐ हैं। गणेश्वर भारत की ताम्र सभ्यताओं की जननी माना जाता है। यहाँ से तांबा हड़प्पा व मोहनजोदड़ो को भी भेजा जाता था।

अन्य महत्वपूर्ण प्राचीन सभ्यताएं

भारतीय इतिहास की भाँति महाभारत के युद्ध के पश्चात् से महात्मा बुद्ध के समय तक का राजस्थान

का इतिहास भी अंधकारमय है क्योंकि इस समय के बारे में जानने के पर्याप्त पुरातात्विक व लिखित साक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं। किन्तु बुद्ध के समय से भारतीय इतिहास के ऐतिहासिक युग के आरम्भ होने के साथ ही राजस्थान के इतिहास के सम्बन्ध में भी पहले की अपेक्षा कुछ अधिक स्पष्ट और प्रामाणिक जानकारी मिलने लगती है। बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर विद्वानों का मत है कि छठी शताब्दी ई. पू. में भारतीय राजनीति पू.. के रंगमंच पर दो प्रवृत्तियां विशेष रूप दिखाई देती हैं- प्रथम, जनपदों का उदय और द्वितीय, साम्राज्यविस्तार हेतु जनपदों के मध्य संघर्ष ।

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