महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.)
मोकल के बाद उसका पुत्र महाराणा कुंभा 1433 ई. में मेवाड़ का शासक बना। राठौड़ों का मेवाड़ पर प्रभाव समाप्त कर उसने मेवाड़ी सामंतों का विश्वास अर्जित किया। कुंभा ने चित्तौड़ एवं कुंभलगढ़ को अपनी शक्ति का केन्द्र बनाया। 1437 ई. में सारंगपुर के युद्ध में मालवा के शासक महमूद खिलजी प्रथम को परास्त कर बंदी बना लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में कुंभा ने विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया। नागौर के उत्तराधिकार को लेकर मेवाड़ व गुजरात में युद्ध हुआ जिसमें गुजरात की पराजय हुई। 1453 ई. में कुंभा ने मारवाड़ से मण्डोर छीन लिया, परंतु बाद में संधि कर अपने पुत्र रायमल का विवाह मारवाड़ की राजकुमारी से कर दिया।
1456 ई. में मालवा के महमूद खिलजी प्रथम व गुजरात के कतुबुद्दीन के बीच चम्पानेर की संधि हुई।
इस संधि में यह तय किया गया कि दोनों शासक मिलकर कुंभा पर आक्रमण करके, उसे हराकर, उसके
राज्य को बांट लेंगे। 1457-58 ई. में गुजरात व मालवा के शासकों ने मेवाड़ पर आक्रमण किया। मगर कुंभा की कूटनीति से दोनों शासकों में मतभेद पैदा होने के कारण वे विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सके ।
ऐसा माना जाता है कि कुभा ने 32 दुगों का निर्माण करवाया, जिनमें सिरोही, अचलगढ़ एवं कुंभलगढ़ के दुर्ग प्रसिद्ध हैं। कविराज श्यामलदास भी कुंभा को मेवाड़ के 84 में से 32 दुर्गों का निर्माता बताते हैं। कुंभलगढ़ का दुर्ग अपनी विशेष भौगोलिक स्थिति एवं बनावट के कारण प्रसिद्ध है। इसका शिल्पी मण्डन था। कुंभा ने चित्तौड़ में कुंभस्वामी तथा शृंगारचंवरी का मंदिर, एकलिंगजी का विष्णु मंदिर एवं रणकपुर के मंदिर बनवाये, जो अपनी विशालता एवं तक्षणकला के कारण अद्भुत हैं।
कुंभा एक विद्वान एवं विद्यानुरागी शासक था। कान्ह व्यास द्वारा रचित एकलिंग महात्म्य से ज्ञात होता है कि वह वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद्, व्याकरण एवं राजनीति में रूचि रखता था। संगीतराज, संगीत मीमांसा व सूड प्रबंध इसके द्वारा रचित ग्रंथ थे। ऐसा माना जाता है कि कुंभा ने चण्डीशतक की व्याख्या. गीत गोविन्द और संगीत रत्नाकार पर टीका लिखी थी। इसके काल में कवि अत्रि और महेश ने कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति की रचना की। तत्कालीन साहित्यिक ग्रंथों और प्रशस्तियों में महाराणा कुंभा को महाराजाधिराज, रावराय, दानगुरु, राजगुरु, परमगुरु, हालगुरु, अभिनवभरताचार्य, हिन्दू सुरताण आदि विरुदों से विभूषित किया गया।
कुंभा निःसंदेह प्रतापी शासक था, किंतु उसका अंतिम समय कष्टमय रहा। अपने जीवन के अंतिम काल में कुंभा को उन्माद रोग हो गया और उसके पुत्र उदा ने 1468 ई. में उसकी हत्या कर दी।
राणा सांगा (1509-1528 ई.) –
सांगा (संग्राम सिंह) व उसके तीनों भाई पृथ्वीराज, जयमल व राजसिंह, चारों ही स्वयं को अपने पिता का उत्तराधिकारी मानते थे। इस कारण उनमें संघर्ष होना स्वाभाविक था, पर इस संघर्ष में अंततः सांगा विजयी रहा और मेवाड़ का शासक बना। इतिहास में ‘हिन्दूपत’ के नाम से प्रसिद्ध महाराणा सांगा 1509 ई. में मेवाड़ का शासक बना। इस समय मालवा पर सुल्तान नासिरूद्दीन शासन कर रहा था। 1511 ई. में सुल्तान की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार का संघर्ष छिड़ गया जिसमें एक राजपूत सरदार मेदिनीराय के सहयोग से महमूद खिलजी द्वितीय को सफलता मिली। इस सफलता से मेदिनीराय का कद बहुत बढ़ गया तथा अब वह एक तरह से मालवा का अप्रत्यक्ष शासक बन गया। अंततः मालवा के अमीरों ने गुजरात की सहायता से मेदिनीराय को इस स्थिति से हटा दिया। मेदिनीराय राणा सांगा की शरण में चला गया, जिससे मालवा एवं मेवाड़ में युद्ध हुआ। मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी-द्वितीय पराजित हुआ और राणा द्वारा बंदी बना लिया गया।
ईडर के उत्तराधिकार का प्रश्न, नागौर पर अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयास व मालवा को सहयोग आदि ऐसे मसले थे, जिनको लेकर सांगा व गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर के बीच संघर्ष हुआ, पर अंतिम रूप से सफलता किसी पक्ष को न मिली। 1517 ई. में महाराणा सांगा ने खातौली (वर्तमान में कोटा जिले में) के युद्ध में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को परास्त किया। इसके बाद राणा की सेना ने बाड़ी (धौलपुर) के युद्ध में भी इब्राहिम लोदी की सेना को परास्त किया। इससे राणा की प्रतिष्ठा बढ़ गयी और राणा सांगा उत्तर भारत का शक्तिशाली शासक बन गया। 1526 ई. में बाबर ने पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त कर आगरा पर अधिकार कर लिया। बाबर ने राणा सांगा पर विश्वासघात का आरोप लगाकर उसके विरुद्ध कूच किया। बाबर के अनुसार राणा सांगा ने उससे वादा किया था, कि जब वह इब्राहीम लोदी पर आक्रमण करेगा, तो सांगा उसकी मदद करेगा, किंतु राणा सांगा ने उसकी कोई मदद नहीं की, मगर इस आरोप की पुष्टि नहीं होती है। चूंकि दोनों ही शासक शक्तिशाली एवं महत्त्वाकांक्षी थे। अतः दोनों के मध्य युद्ध निश्चित था । यद्यपि खानवा के मैदान में सांगा पराजित हुआ था, इससे पहले बयाना के युद्ध (फरवरी, 1527 ई.) में उसने बाबर की सेना को पराजित किया था। 17 मार्च, 1527 को खानवा के मैदान में बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध हुआ। तोपखाने एवं तुलुगमा युद्ध पद्धति के कारण बाबर की विजय हुई। राणा सांगा युद्ध में घायल हुआ एवं उसे युद्ध के मैदान से दूर ले जाया गया। जब राणा सांगा ने अपनी पराजय का बदला लिये बिना चित्तौड़ लौटने से इनकार कर दिया तब उसके सामंतों ने जो युद्ध नहीं करना चाहते थे, सांगा को विष दे दिया। जिसके फलस्वरूप 30 जनवरी, 1528 को बसवा (दौसा) में सांगा की मृत्यु हो गई। माण्डलगढ़ में सांगा का समाधि स्थल है।राणा सांगा की मृत्यु के पश्चात् राणा रतनसिंह (1528-1531 ई.) व उसके पश्चात् राणा विक्रमादित्य मेवाड़ का शासक बना।
राणा उदयसिंह (1537-1572 ई.)
राजस्थान के इतिहास में अपने महान बलिदान के कारण ख्याति प्राप्त पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान करके उदयसिंह को बनवीर से बचाया था। उदयसिंह को बचाकर कुंभलगढ़ के किले में रखा गया था। यहीं मालदेव के सहयोग से 1537 ई. में उदयसिंह का राज्याभिषेक हुआ। उदयसिंह ने 1559 ई. में उदयपुर नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। यहाँ उसने उदयसागर झील तथा मोती मगरी के सुंदर महलों का निर्माण करवाया। अक्टूबर, 1567 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। अपने सरदारों की सलाह पर उदयसिंह किले की रक्षा का भार जयमल और फत्ता नामक अपने दो सेनानायकों को सौंपकर पहाडियों में चला गया। किले की रक्षा के दौरान जयमल व फत्ता वीर गति को प्राप्त हुए। अकबर ने जयमल फत्ता की वीरता से मुग्ध होकर आगरा के किले के बाहर उनकी हाथी पर सवार पत्थर की मूर्तियाँ लगवाई।