आर्यों के प्रसार के अन्तर्गत और उसके पश्चात् भारत के अन्य भागों की भाँति राजस्थान में भी अनेक जनपदों का उदय, विकास और पतन हुआ। बौद्ध साहित्य (बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय से हमें 16 महाजनपदों की सूची प्राप्त होती हैं) में जिन 16 महाजनपदों का उल्लेख हुआ हैं उनमें से मत्स्य जनपद तो राजस्थान में ही स्थित था और राजस्थान के अनेक भाग कुरु, शूरसेन और अवन्ति महाजनपदों के अन्तर्गत थे। इसके अतिरिक्त चित्तौड़ के आस-पास का क्षेत्र शिवि जनपद कहलाता था। 327 ई. पू. में सिकन्दर के आक्रमणों के कारण अपनी सुरक्षा और अस्तित्व की रक्षा के लिये पश्चिमोत्तर सीमा से कबीले – मालव, यौधेय और आर्जुनायन राजस्थान में आकर बस गये।
मत्स्य जनपद –
आर्य ‘जन’ के रूप में मत्स्य जाति का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में हुआ है जो इसकी प्राचीनता का प्रतीक है। शतपथ ब्राह्मण और कौषीतकी उपनिषद् में भी मत्स्य जन का उल्लेख मिलता है। महाभारत में भी मत्स्य जनपद की गणना भारत के प्रमुख जनपदों में की गई है। अनुमान है कि दक्षिण में इसका विस्तार चम्बल की पहाड़ियों तक और पश्चिम में पंजाब में सरस्वती नदी के जंगलों तक था। इस प्रदेश में आधुनिक जयपुर, अलवर, धौलपुर, करौली व भरतपुर के कुछ भाग सम्मिलित थे। महाभारत काल में मत्स्य जनपद का शासक विराट था जिसने जयपुर से 85 किलोमीटर दूर विराट नगर (बैराठ), बसाकर उसे मत्स्य जनपद की राजधानी बनाया। विराट की पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ हुआ था। इन्हीं का पुत्र परीक्षित कालान्तर में पाण्डवों के राज्य का उत्तराधिकारी बना।
महाभारत काल के पश्चात् मत्स्य जनपद के इतिहास के सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं मिलता। किन्तु डॉ. गोपीनाथ शर्मा का मत है कि महाभारत के बाद कुरु और यादव जनपद निर्बल हो गये। इन शक्तिशाली जनपदों की निर्बलता का लाभ उठाकर मत्स्य राज्य शक्तिशाली हो गया और उसकी राजधानी विराटनगर की समृद्धि में वृद्धि हुई। मत्स्य जनपद के निकट आधुनिक अलवर के कुछ भागों शाल्व जाति रहती थी। अस्पष्ट सीमा को लेकर इन दोनों में प्रायः संघर्ष होता रहता था। शाल्वों की भाँति चेदि जनपद भी मत्स्य जनपद का पड़ौसी था। चूंकि दो पड़ौसी राजनीतिक शक्तियों में प्रायः शत्रुता रहती है, अतः चेदि और मत्स्य जनपद में भी संघर्ष चलता रहता था। एक अवसर पर चेदि राज्य ने पूर्ण शक्ति के साथ मत्स्य राज्य पर आक्रमण कर मत्स्य जनपद को चेदि जनपद में मिला लिया। अनुमान है कि मत्स्य जनपद अधिक समय तक चेदि जनपद के अधीन नहीं रहा और कुछ समय बाद ही उसने अपनी स्वतंत्रता पुनः प्राप्त कर ली। कुछ समय बाद ही मत्स्य जनपद मगध की साम्राज्यवादी नीति का शिकार हो गया। मगध के सम्राटों ने भारत के अन्य जनपदों की भाँति मत्स्य जनपद को भी जीतकर मगध साम्राज्य में शामिल कर लिया। मौर्यों के शासनकाल में मत्स्य जनपद मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत था। मत्स्य जनपद की राजधानी विराटनगर (बैराठ) से प्राप्त अशोक का शिलालेख और अन्य मौर्ययुगीन अवशेष इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।
राजपूतों की उत्पत्ति
हर्षवर्धन की मृत्यु (647 ई.) के बाद भारत की राजनीतिक एकता जो गुप्तों के समय स्थापित हुई थी, पुनः समाप्त होने लगी। उत्तर भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई। ये राज्य आपस में संघर्षरत थे। इन संघर्षों के परिणामस्वरूप जो नये राजवंश उभरे, वे राजपूत राजवंश कहलाते हैं। इन नवीन राजवंशों का महत्त्व इसी तथ्य से पुष्ट होता है कि भारत का पूर्व-मध्यकालीन इतिहास इन राजपूत राजवंशों का इतिहास ही है, इसलिये इस काल को राजपूत-काल कहा जाता है।
प्रसिद्ध इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है कि “वे (राजपूत) हर्ष की मृत्यु के बाद से उत्तरी भारत पर मुसलमानों के आधिपत्य तक इतने प्रभावशाली हो गये थे कि सातवीं शताब्दी के मध्य से 12वीं शताब्दी की समाप्ति तक के समय को राजपूत-युग कहा जा सकता है।”
राजपूत कौन थे? यह प्रश्न आज भी उलझा हुआ है। विद्वानों ने इस विषय में अनेक मत प्रतिपादित किये हैं, किंतु कोई भी मत ऐसा नहीं है, जो पूरी तरह सर्वमान्य हो। डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि “राजपूत शब्द का प्रयोग नया नहीं हैं। प्राचीनकाल के ग्रन्थों में इसका व्यापक प्रयोग मिलता है। चाणक्य के ‘अर्थशास्त्र’, कालिदास के नाटकों व बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ तथा ‘कादम्बरी’ में इस शब्द का प्रयोग किया गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी जो हर्षवर्धन के समय आया था, राजाओं को कहीं क्षत्रिय और कहीं राजपूत लिखा है।” डा. ओझा द्वारा सुझाया गया, यह मत सर्वमान्य नहीं है। राजपूत शब्द का प्रयोग एक जाति के अर्थ में मुसलमानों के आगमन से पूर्व प्राप्त नहीं हुआ है, यद्यपि शासक वर्ग यानी क्षत्रियों के लिए ‘राजपुत्र’ शब्द का प्रयोग अवश्य किया जाता था। आगे की पंक्तियों में हम इस संबंध में महत्त्वपूर्ण विद्वानों के मतों का अध्ययन करेंगे, उनके मत व उस पर अन्य विद्वानों की टिप्पणियों को भी हम जानेंगे।
वैदिक आर्यों की संतान
डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा तथा सी.वी. वैद्य राजपूतों को भारतीय आर्यों के क्षत्रिय वर्ण (राजन्य वर्ग) की सन्तान मानते हैं। उनके कथनानुसार राजपूत प्राचीन क्षत्रियों की तरह अश्व तथा अस्त्र की पूजा करते हैं। प्राचीन आर्यों की भाँति यज्ञ और बलि में भी उनका विश्वास रहा है। उनके सुडौल शारीरिक गठन, लम्बी नाक और लम्बे सिर से भी यह प्रमाणित होता है कि वे आर्यों की सन्तान हैं।
‘अग्निकुण्ड से उत्पन्न
चन्दबरदायी (अजमेर के शासक पृथ्वीराज-तृतीय का दरबारी विद्वान) ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ पृथ्वीराज रासो में राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से बताई है। उसने लिखा है कि आबू पर्वत पर निवास करने वाले विश्वामित्र, गौतम, अगस्त्य तथा अन्य ऋषि धार्मिक अनुष्ठान करते थे। इन अनुष्ठानों को राक्षस माँस, हड्डी और मल-मूत्र डालकर अपवित्र कर देते थे। वशिष्ठ मुनि ने इनसे निपटने हेतु यज्ञ कुण्ड से तीन योद्धा उत्पन्न किये, जो परमार, चालुक्य और प्रतिहार कहलाए। किन्तु जब ये तीनों भी रक्षा करने में असमर्थ सिद्ध हुए तो वशिष्ठ ने चौथा योद्धा उत्पन्न किया जो प्रथम तीन से ज्यादा ताकतवर और हथियार से सुसज्जित था, जिसका नाम चौहान रखा गया। चन्दबरदाई के अनुसार इस तरह राजपूतों की उत्पत्ति मुनि वशिष्ठ द्वारा अग्निकुण्ड (यज्ञ कुण्ड) से की गई।
विदेशियों की सन्तान
राजस्थान के इतिहास-लेखक जेम्स टॉड ने लिखा कि, “राजपूत शक अथवा सीथियन जाति के वंशज हैं।” टॉड ने अग्निकुण्ड की कहानी को स्वीकार करते हुए इसी आधार पर राजपूतों को विदेशी जाति का प्रमाणित करने का प्रयास किया है। उनका मत है कि यह विदेशी जातियाँ छठी शताब्दी के लगभग आक्रमणकारी के रूप में भारत आयीं और इन्हीं विदेशी विजेताओं को, जब वे शासक बन बैठे तो उन्हें अग्नि संस्कार द्वारा पवित्र कर वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय वर्ण में ले लिया। टॉड ने राजपूतों को शक व सीथियन प्रमाणित करने के लिए तर्क दिया है कि राजपूतों के रीति-रिवाज शक, सीथियन और हूणों से मिलते हैं, जैसे- अश्वपूजा, अश्वमेध, अस्त्रपूजा, अस्त्र-शिक्षा आदि अतः दोनों जातियाँ एक ही हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार वी.ए. स्मिथ ने लिखा है कि राजपूत जाति आठवीं या नवीं शताब्दी में अचानक प्रकट हुई थी और स्मिथ ने राजपूतों को हूणों की संतान बताया है।