Rajasthan Ka Ittihaas – EK parichay

1949 ई. से पूर्व राजस्थान नाम से किसी भौगोलिक इकाई का अस्तित्व नहीं था। ऐसा माना जाता है कि 1800 ई. में सर्वप्रथम जॉर्ज थामस ने इस भू-भाग के लिए ‘राजपूताना’ शब्द का प्रयोग किया था। इसके बाद 1829 ई. में एनल्स एण्ड एण्टीक्वीटीज ऑफ राजस्थान के लेखक कर्नल जेम्स टॉड ने इस पुस्तक में इस प्रदेश का नाम ‘रायथान’ या राजस्थान’ रखा। स्वतंत्रता के बाद जब इस प्रदेश की विभिन्न रियासतों का एकीकरण हुआ तो 30 मार्च, 1949 ई. को सर्वसम्मति से इसका नाम राजस्थान रखा गया।

प्राचीन साहित्य और अभिलेखों में वर्तमान राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों के भिन्न-भिन्न नाम मिलते हैं। कुछ क्षेत्र उनकी भौगोलिक विशेषताओं के आधार पर और कुछ क्षेत्र वहां पर बसी जातियों के नामों से जाने जाते थे। राजस्थान के क्षेत्रों के प्राचीनतम नामों में, जिनका उल्लेख ऋग्वेद में भी आया है, ‘मरु’, ‘धन्व’, ‘जांगल’, मत्स्य, ‘शूरसेन’ आदि हैं। मरु और धन्व दोनों का अर्थ एक ही है और इनका प्रयोग जोधपुर संभाग के मरूस्थल के लिये हुआ है। जोधपुर पहले ‘मरू’, फिर ‘मरूवार’ कहलाता था और कालान्तर में इसे ‘मारवाड़’ कहा जाने लगा। जांगल शब्द का प्रयोग उस क्षेत्र के लिये किया गया है जहां शमी, कैर या पीलू आदि होते हों। बीकानेर और नागौर व आसपास का क्षेत्र ‘जांगल देश’ कहलाता था। मत्स्य, जिसका उल्लेख महाभारत में एक राज्य के रूप में हुआ है वह जयपुर अलवर और भरतपुर तक विस्तृत था। इसकी राजधानी विराटनगर थी। भरतपुर के मथुरा क्षेत्र से सटे हुए क्षेत्र, धौलपुर और करौली के अधिकांश भाग शूरसेन राज्य में सम्मिलित थे। यह भी एक प्राचीन राज्य था। महाभारत में भी इसका उल्लेख मिलता है।

भौगोलिक विशेषताओं के आधार पर नामित कुछ अन्य क्षेत्र निम्नलिखित हैं : माही नदी के पास का प्रतापगढ़ का भू–भाग ‘कांठल’ कहलाता था क्योंकि यह क्षेत्र माही नदी के किनारे (कांठे) पर स्थित था। छप्पन गाँवों का समूह होने के कारण प्रतापगढ़-बाँसवाड़ा के मध्य का भू-भाग छप्पन का मैदान कहलाता था।

इतिहास का काल विभाजन –

मौटे तौर पर मानव के सम्पूर्ण इतिहास को तीन कालों में विभक्त किया जाता है – (1) प्राक् युग (2) आद्य युग और (3) ऐतिहासिक युग। ‘प्राक् युग’ इतिहास के उस काल को कहा जाता है जिसके ज्ञान के लिये कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, अर्थात् मानव लेखनकला से अपरिचित था। ‘आद्य युग’ की संज्ञा इतिहास के उस काल को दी जाती है जिसके लिखित साक्ष्य तो उपलब्ध हैं किन्तु या तो वे अस्पष्ट हैं अथवा उनकी लिपि को अभी पढ़ना सम्भव न हुआ हो। ‘ऐतिहासिक युग’ उस काल के इतिहास को कहा है जिसके सम्बन्ध में स्पष्ट और सुपठित लिखित साक्ष्य उपलब्ध हैं। इन अर्थों में भारतीय इतिहास के कालक्रम को इस प्रकार से विभक्त कर सकते हैं- (1) प्राक् युग-यह युग सृष्टि के आरम्भ से हड़प्पा सभ्यता के पूर्व तक था। (2) आद्य युग-यह युग हड़प्पा सभ्यता के काल से 800 ई.पू. तक रहा। (3) ऐतिहासिक युग-यह युग 600 ई.पू. से वर्तमान तक जारी है।

प्रागैतिहासिक राजस्थान (प्राक् युग में राजस्थान) –

मानव सभ्यता का उदय नदी घाटियों में हुआ था क्योंकि नदी घाटियों में जल की प्रचुरता के कारण यहाँ अपने आप उत्पन्न होने वाले कन्दमूल फल भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। सघन वनों के कारण यहाँ मांस हेतु पशु-पक्षी भी आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। सैकड़ों वर्षों पूर्व राजस्थान की भौगोलिक स्थिति ऐसी ही थी। यद्यपि राजस्थान का एक बड़ा भाग आज मरूस्थल है, किन्तु विद्वानों की मान्यता है कि सैंकड़ों वर्ष पूर्व इस मरूस्थली भूमि में समुद्र विद्यमान था और सरस्वती तथा दृषद्वती नदियाँ इस समुद्र में आकर गिरती थीं। यह स्थिति मानव जीवन के लिए सर्वथा उपयुक्त थी। यही कारण है कि ऐसी भौगोलिक स्थिति में राजस्थान को भी मानव सभ्यता के जन्म के प्राचीनतम भू-भागों में से एक होने का गौरव प्राप्त हुआ। मानव सभ्यता के उद्भव के इस काल को पाषाण काल कहते हैं, इसे तीन भागों में बांटा गया है- पूर्व पाषाण-काल, मध्य पाषाण-काल तथा उत्तर पाषाण-काल ।

पूर्व पाषाण-काल-

 राजस्थान में मानव का उदय कब हुआ यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है लेकिन यहाँ विभिन्न क्षेत्रों में हुए उत्खननों से प्राप्त विभिन्न प्रकार के पाषाण, विशेष रूप से क्वार्टजाइट पत्थर के अनेक उपकरणों से ज्ञात होता है कि आज से लगभग दो या डेढ़ लाख वर्ष पूर्व राजस्थान में एक मानव संस्कृति विद्यमान थी। 1870 ई. में सी.ए. हैकेट ने सर्वप्रथम जयपुर और इन्द्रगढ़ से पत्थर से बनी पूर्व पाषाणकालीन हस्त कुठार (Hand-axe) खोज निकाली। कुछ समय पश्चात् सेटनकार ने झालावाड़ से इसी युग के अनेक उपकरण खोज निकाले। इसके बाद हुए योजनाबद्ध उत्खनन में भारतीय पुरातत्व और संग्रहालय विभाग, नई दिल्ली, डेक्कन कॉलेज पूना के वीरेन्द्रनाथ मिश्र, राजस्थान पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के आर.सी. अग्रवाल, डॉ. विजय कुमार, हरिश्चन्द्र मिश्रा आदि विद्वानों ने राजस्थान की पूर्व पाषाणकालीन सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न पक्षों को सामने लाने में सराहनीय योगदान दिया है। इनके प्रयत्नों से राजस्थान में अजमेर, अलवर, चित्तौड़, भीलवाड़ा, जयपुर, झालावाड़, जालोर, जोधपुर, पाली, टॉक आदि क्षेत्रों की प्रमुख नदियों, विशेष रूप से चम्बल, बनास व उनकी सहायक नदियों के किनारे पूर्व पाषाणकालीन उपकरण प्राप्त हुये हैं। जालोर से इस युग के उपकरणों की खोज का श्रेय बी. आल्चिन को है। स्पष्ट है कि उपर्युक्त सम्पूर्ण भू-भाग पूर्व पाषाणकालीन संस्कृति का प्रसार क्षेत्र था।

मध्य पाषाण काल

मानव सभ्यता के क्रमिक विकास की कहानी की दूसरी कड़ी के रूप में राजस्थान के प्रागैतिहासिक काल में मध्य पाषाण-काल रहा है। पश्चिम राजस्थान में लूनी और उसकी सहायक नदियों, चित्तौड़ की बेड़च नदी घाटी और विराटनगर से मध्य पाषाणकालीन उपकरण मिले हैं। इस काल के उपकरण छोटे, हल्के और कुशलता से निर्मित हैं। ये उपकरण जैस्पर, एगेट, चर्ट, कार्नेलियन, क्वार्टजाइट, कल्सेडोनी आदि पाषाणों से बने हैं, जिनमें ब्लेड (Blade), इग्रेवर (Engraver). ट्रायएंगल (Triangle), क्रेसेन्ट (Crecent), ट्रेपेज (Trapeze), स्क्रेपर (Scraper)), प्वाइंटर (Pointer) आदि उल्लेखनीय हैं। पत्थर के बने इन छोटे उपकरणों को माइक्रोलिथ (लघु पाषाण उपकरण) कहा गया है।

उत्तर पाषाण काल

भारत के अन्य भागों की भांति राजस्थान में भी नव पशानकालीन सभ्यता का उदय हुआ था। अजमेर, नागौर, सीकर, झुंझुनूं, जयपुर, उदयपुर, चितौड़, जोधपुर आदि स्थानों से उत्तर पाषाण कालीन सभ्यता के अनेक उपकरण प्राप्त हुए हैं।

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